एक बार फिर खुद को आधा-अधूरा छोड़ दिया,
कई अवसरवादी चेहरे आपके द्वार पर आ रहे हैं
तेरे घर का रास्ता हमने खुद्दारी में छोड़ दिया,
मेरे प्यार का ′′ पवन ′′ कई बार मारा गया है ।
हमारी मासूमियत-हर बार कातिल को जिंदा छोड़ दिया,
होंठ प्यासे थे और बदन भी चाहिए था,
सामने एक गंदा दरिया था, हमने दरिया छोड़ दिया,
तमीज से शायरी लिखना नहीं आता,
कोई क्या समझेगा -? हमने तो मुद्दत से ये सोचना ही छोड़ दिया,
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खराब वक़्त
वक़्त हो खराब तो
फिर क्या क्या नही होता,
खुदा तो होता है मगर
सबका खुदा नही होता,
बहारों के मौसम में भी
वीरान रहते हैं बगीचे,
उजड़ जाते वो बाग़ जिनका
कोई बागबां नही होता
वैसे तो खिल जाते हैं फूल
पथरीले रेगिस्तानों में भी
पर ये भी हकीकत है कि
बिना बरसात के कभी
जंगल हरा भरा घना नही होता,
वक्त अच्छा हो तो अपने बहुत
बुरे वक्त में अपनों के होते भी
कोई अपना नही होता --??
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ख्वाबों का शहर ।
गुज़रे वक़्त में मेरे लिए भी
सुहानी शाम का
एक खामोश पहर
हुआ करता था,
आज है खण्डहर यहां
कभी वहां
मुहब्बतों के
ख्वाबों का शहर
हुआ करता था ।
लेखक श्री भगत पावन कोशल ।


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